भगवान बुद्ध मानवता के सर्वोच्च प्रतिमान बन चुके हैं। भगवान श्री राम और भगवान श्री कृष्ण, को छोड़कर संपूर्ण संसार में इतना लोकप्रिय कोई नहीं हुआ जितना भगवान बुद्ध है। सच्चे अर्थों में उन्हें विश्व का और ज्ञान का प्रकाश स्तंभ कहा जा सकता है। कम से कम 50 देश में भगवान बुद्ध के मत के अनुयाई रहते हैं इनकी संख्या 180 करोड़ से भी ज्यादा है। यह इस बात का प्रमाण है कि ढाई हजार से अधिक वर्ष बीत जाने के बाद भी भगवान बुद्ध इस धरती पर अमर है।
भगवान बुद्ध का जन्म लुंबिनी नामक स्थान पर हुआ था जो पहले भारत का एक गणराज्य था और वर्तमान में यह नेपाल में है इस बात से स्पष्ट है कि प्राचीन काल में नेपाल भी भारत का एक अंग था। यह भी ध्यान देने वाली बात है कि भगवती सीता देवी के पिता महाराज जनक जो ब्रह्मऋषियों से बड़े ज्ञानी थे इसी मिथिला के थे जो तब तक भारत का अंग था और वर्तमान में यह भी नेपाल में है।
भगवान बुद्ध के बचपन का नाम सिद्धार्थ गौतम था। जन्म देने के कुछ समय बाद ही उनकी मां महामाया देवी का स्वर्गवास हो गया था, लेकिन विमाता प्रजापति गौतमी ने उनका पालन पोषण किया इससे उनके नाम के आगे गौतम लग गया जिन्होंने भगवान बुद्ध को असली मां से भी अधिक प्रेम दिया और जो अंत तक रहा। भगवान बुद्ध के जन्म के समय बड़े-बड़े ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की थी कि या तो यह बालक चक्रवर्ती सम्राट होगा और सारे पृथ्वी को जीत लेगा या ऐसा महानतम सन्यासी होगा जिसका ज्ञान सारी धरती को जीत लेगा। इसलिए उनके पिता शुद्धोधन ने हर संभव प्रयास किया की बालक दुनिया के दुखों से कष्ट से पीड़ा से बिल्कुल अनजान रहे लेकिन नियति को तो कुछ और स्वीकार था।
भगवान बुद्ध को सांसारिक सुख में लिप्त रखने के लिए उनके पिता ने उनके लिए सर्दी गर्मी और वर्षा ऋतु के लिए तीन अलग-अलग शानदार महल सुंदर से सुंदर बाग बगीचे और वाटिका लगवाया और उस समय की सबसे सुंदर स्त्री यशोधरा से उनका विवाह भी कर दिया लेकिन भगवान बुद्ध को ईश्वरीय संदेश स्वप्न में आते ही रहते थे। उनका सारथी छंदक बहुत ही बुद्धिमान था और वह भगवान बुद्ध को राजा के वचनों के अनुसार दुख और परेशानी के दृश्यों से दूर रखता था।
सिद्धार्थ बचपन से ही बहुत शक्तिशाली और मेधावी थे खेलकूद में सबसे आगे रहते थे।उनका चचेरा भाई देवदत्त उनका सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी था। एक बार उसने हंस को तीर मार दिया भगवान बुद्ध ने हंस की सेवा किया। दोनों में विवाद हुआ की हंस किसका है और राजा ने निर्णय दिया कि बचाने वाले का अधिकार मारने वाले से अधिक होता है इसलिए हंस सिद्धार्थ का है एक बार उनके राज्य में युद्ध की प्रतियोगिता हुई सिद्धार्थ गौतम सब प्रतियोगिता में सबसे आगे रहे, लेकिन उड़ते हुए पक्षी को अपने करुणा के कारण मारने से अस्वीकार कर दिया उनका लक्ष्य वेध अचूक होता था।
भगवान बुद्ध एक बार महल से बाहर जनता के बीच घूमने निकले वहां पर उन्होंने वास्तविक जीवन को देखा, उन्होंने एक भिखारी को देखा, एक मरे हुए व्यक्ति को देखा और एक संन्यासी को देखा और भी अनेक दृश्य देखे जिससे वह बहुत विचलित हो गए। सारथी के द्वारा सब कुछ ज्ञात होने पर और यह ज्ञात होने पर की सभी को अंत में मर जाना है वे और भी अधिक विचलित हो गए, लेकिन सन्यासी के तेज से बहुत प्रभावित हुए और अंत में निश्चय किया की पुत्र और पत्नी राजपाट धन-धान्य को छोड़कर उन्हें जरा जीर्णता और मृत्यु को जीतने के लिए सन्यासी बनना है ।
एक दिन संकल्प करके आधी रात को वे भवन से बाहर निकल पड़े सारथी के साथ नदी के किनारे आए और अपना वस्त्र आभूषण और अन्य समान देकर सारथी को विदा किया अपने बाल उतार दिए और ज्ञान की खोज में निकल पड़े। वहां उन्होंने गुरु अलार कलाम और उद्रक राम से गंभीर ज्ञान प्राप्त किया, लेकिन मन को संतोष नहीं हुआ और भी बड़े-बड़े ज्ञानी ऋषि मुनि से मिले पर वह नहीं मिला जो वह खोजने गए थे अर्थात् जरा जीर्णता और मृत्यु से छुटकारा पाने का परम ज्ञान, इसलिए वे आगे बढ़ते चले गए इसी क्रम में उन्हें सारनाथ में छः तेजस्वी शिष्य मिले जिनके साथ उन्होंने घनघोर तपस्या किया और सूख कर बिल्कुल कांटा हो गए फिर भी उन्हें परम ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ।
इसी अवस्था में सुजाता नाम की कन्या पुत्र जन्म की खुशी में खीर लेकर वृक्ष देवता को चढ़ाने आई और कंकाल मात्र भगवान बुद्ध को देखकर समझी कि यही साक्षात वृक्ष देवता हैं और खीर अर्पित कर दिया भगवान बुद्ध ने बड़े प्रेम से खीर खाया यह देखकर उनके छह शिष्यों ने सोचा भगवान बुद्ध की तपस्या खंडित हो गई। और वे उनका साथ छोड़कर भाग गए।
इस घटना से भगवान बुद्ध बड़े चिन्तित हो गए और सोचने लगे कि अब क्या किया जाए। संयोगवश उसी रात को नाचने गाने वालों का एक दल इस बगीचे में रुका हुआ था और एक स्त्री बड़े मधुर स्वर में गा रही थी -
"वीणा के तारों को बहुत मत खींचो वरना वे टूट जाएंगे।
वीणा के तारों को बहुत ढीला मत रखो वरना वे नहीं बजेंगे।।"
इस गीत को सुनकर ही भगवान बुद्ध को मानव वास्तविक मार्ग का ज्ञान हो गया और आगे चलकर इसी को मध्यम मार्ग कहा गया।
इसके बाद भगवान बुद्ध बोधगया में नदी के किनारे विराट पीपल के वृक्ष के नीचे बैठे और यह सोचकर अखंड समाधि लगाए कि या तो मेरा महाप्रयाण हो जाएगा या परम ज्ञान प्राप्त हो जाएगा। इस दशा में पूरे एक महीने तक ध्यान मग्न समाधि में लीन रहे। धीरे-धीरे उन्होंने मां और प्राण तथा प्राण वायु को एकाग्र किया और कुंडली चक्र को जागृत करके सातवीं अवस्था में पहुंच गए और यम नियम आसन प्राणायाम प्रत्याहार धारणा ध्यान और समाधि की अंतिम अवस्था में पहुंच गए और अंत में एक सप्ताह के बाद ठीक वैशाख पूर्णिमा के दिन उन्हें परम ज्ञान प्राप्त हुआ। इस क्रिया को बुद्धत्व की प्राप्ति कहा जाता है तब से वह भगवान बुद्ध कहे गए। इसके बाद वे वापस सारनाथ अपने शिष्यों के पास आए। उनके तेज से चमकते हुए मुंह को देखकर उनके शिष्यों को पश्चाताप हुआ और उन्होंने क्षमा याचना किया इसके बाद संपूर्ण जीवन भगवान बुद्ध ने पूरे विश्व में दया परोपकार करुणा शांति अहिंसा मध्य मार्ग अष्टांग योगका संदेश फैलाया।
आज भले लोग बौद्ध धर्म को अलग धर्म मान रहे हैं लेकिन भगवान बुद्ध ने इसे अलग धर्म नहीं माना उन्होंने केवल सनातन धर्म में आई कमी अंधविश्वास और रूढ़ियों को हटाकर परम दिव्य ज्ञान का प्रकाश फैलाया और पूरी दुनिया में उनके ज्ञान का प्रकाश फैल गया। उन्होंने अंगुलिमाल जैसे शैतानी डाकू को भी अपने बस में करके अपने महान शक्ति का प्रदर्शन किया और अंत में 80 वर्ष की अवस्था में 483 ईसा पूर्व में उन्होंने कुशीनगर में महापरिनिर्वाण प्राप्त किया। उनका जन्म मृत्यु और ज्ञान प्राप्ति तीनों एक ही दिन हुआ था। यह बहुत ही विलक्षण घटना थी। भगवान बुद्ध एक ऐसे महान विभूति हैं जिनके ज्ञान का प्रकाश दिग दिगंत में फैल रहा है। ईश्वर को लेकर वे नास्तिक नहीं थे लेकिन उसकी गलत व्याख्या की गई है ईश्वर के बारे में उन्होंने अपने विचार कभी व्यक्त नहीं किया आज भगवान बुद्ध और उनकी शिक्षाओं की पूरे विश्व को आवश्यकता है।
भगवान बुद्ध की जयंती वैसाख पूर्णिमा के दिन मनाई जाती है इसको बुद्ध जयंती वैसाख वेसाक विशाख बुन सागा दाव फो दैन फैट दैन जैसे नामों से भी जाना जाता है भगवान बुद्ध की जयंती वैसाख पूर्णिमा को समस्त सनातनी मनाते हैं क्योंकि भगवान बुद्ध भगवान विष्णु के नवें अवतार माने जाते हैं दसवां और अंतिम अवतार भगवान कल्कि का है जो कलयुग के अंत में जन्म लेंगे। यहां पर बड़ी ही धूमधाम से भगवान बुद्ध के धर्मस्थली सारनाथ उनके जन्म स्थान लुंबिनी और महापरिनिर्वाण स्थान कुशीनगर में मनाया जाता है। इस अवसर पर भगवान बुद्ध को याद करते हुए उनकी शिक्षाओं का प्रचार प्रसार किया जाता है जो पहली बार सम्राट अशोक के द्वारा देश-विदेश में की गई थी और धीरे-धीरे संपूर्ण विश्व में फैल गया था।
भगवान बुद्ध दया क्षमा करुणा परोपकार और सेवा के मूर्ति मां स्वरूप थे। प्रारंभ में बौद्ध धर्म में महिलाओं को स्थान नहीं दिया गया लेकिन बाद में यशोधरा और प्रजापति गौतमी माता के कहने पर महिलाओं को भी स्थान दिया गया और उनके घर परिवार के समस्त लोग उनके अनुयाई बन गए। कालान्तर में बौद्ध धर्म ही ज्ञान और महायान नाम के दो भागों में बंट गया था। आज भगवान बुद्ध के ज्ञान का प्रकाश सारे संसार को जगमग कर रहा है।